Tuesday, April 13, 2010

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ गंगा में भी ज़मज़म में भी
कोई बतलाये कहाँ जा के नहाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए...

मेरा मकसद है ये महफिल रहे रौशन यूँ ही
खून चाहे मेरा दीपो में जलाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए...

मेरे दुःख-दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा चलाया जाए...

जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसा
मेरा आंसू तेरी पलकों से उठाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा चलाया जाए...

गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रुबाई भी दुखी
ऐसा माहौल में 'नीरज' को बुलाया जाए
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए...

अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए

-- गोपाल दास नीरज

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